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Editorial

चुनावों में गालियों का प्रयोग : जितने कडवे बोल उतना अच्छा - पूनम आई कौशिश

October 29, 2020 06:40 AM
Jagmarg News Bureau

लोकतंत्र हितों का टकराव है जो इस तीखे, धुंआधार चुनावी मौसम में सिद्धांतों के टकराव का रूप लेता जा रहा है। इस चुनावी मौसम में हमारे नेताओं द्वारा झूठ और विषवमन, गाली गलौच, कडुवे बोल देखने सुनने को मिल रहे हैं और पिछले एक पखवाडे से हम यह सब कुछ देख रहे हैं। गाली-गलौच, अपशब्द, दोषारोपण आज एक नए राजनीतिक संवाद बन गए है और जिन्हें सुनकर दशक सीटियां बजाने लगते हैं इस आशा में कि यह उन्हें राजनीतिक निर्वाण दिलाएगा।

बिहार और मध्य प्रदेश चुनाव 2020 में आपका स्वागत है। जहां पर इस चुनावी मौसम में अनैतिकता देखने को मिल रही है और राजनीतिक विरोधियों तथा जानी दुश्मन के बीच की लकर धुंधली होती जा रही है। इन चुनावों में घृणित तू-तू, मैं-मैं देखने को मिल रही है। हमारे नेतागणों द्वारा राजनीतिक संवाद में गाली-गलौच, भडकाऊ भाषण, अर्थहीन बातें आदि सुनाई जा रही हैं और वे वोट प्राप्त करने के लिए राजनीतिक मतभेद बढा रहे हैं।

इस दिशा में पहल मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने की जिन्हांेने पूर्व कांग्रेसी नेता इमरती देवी, जो अब भाजपा मंत्रिमंडल में कैबिनेट मंत्री हैं, उनके बारे में कहा, ‘‘हमारे उम्मीदवार सीधे और सरल हैं, उनकी तरह नहीं। उनका नाम क्या है? मैं उनका नाम भी क्यों लूॅं।’’ इस पर भाजपा के नेता ने प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा, ‘‘कमलनाथ सिंह अपनी पहली पत्नी के बारे में सूचना क्यों छुपा रहे हैं और अपने नामांकन पत्र में अपनी रखैल का उल्लेख क्यों किया।’’ बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार राज्य में राजद के जंगलराज को समाप्त करने और कानून का शासन स्थापित करने के लिए अपनी पीठ थपथपा रहे हैं।

प्रधानमंत्री मोदी ने चुनाव प्रचार के दौरान कहा, विपक्ष ने एक पिटारा बनाया है जो नक्सल आंदोलन को आगे बढा रहा है। भाजपा के एक वरिष्ठ नेता कहा हम पप्पू अर्थात राहुल और जोडतोड मंडली महागठबंधन के बीच फंसे हुए हैं तो राहुल ने कहा मोदी जहां कहीं जाते हैं केवल झूठ बोलते है। आग में घी डालते हुए राजद के तेजस्वी यादव ने कहा नीतीश मानसिक और शारीरिक रूप से थक गए हैं। उनके पास कुसी पर बैठने और इस तरह अपना जीवन बिताने के सिवाय कोई चारा नहंी है। तो जद (यू) अध्यक्ष ने इस पर कहा कहां भागे फिर रहे थे। तुम दिल्ली मे कहां रहते थे।

क्या आप इन सबको सुनकर हैरान होते हैं। बिल्कुल नहीं। जो भाषण जितना कडुवा होता है उतना अच्छा। आप इसे राजनीतिक संवाद का अंग कह सकते हैं किंतु सच यह है कि गत वर्षाें में हमारे नेता असंमियत भाषा में सिद्धहस्त हो गए हैं। आपको स्मरण होगा कि कांग्रेस ने मोदी को गंदी नाली का कीडा, गंगू तेली, अहंकारी, दुर्योधन और कातिल तक कहा था तो उन्होंने कांग्रेस को पाकिस्तान का प्रवक्ता कहा। यही नहीं मायावती खुद रोज फेशियल करवाती हैं, उनके बाल पके हुए हैं और उनको रंगीन करवाकर अपने आपको जवान साबित करती हैं। 60 वर्ष उम्र हो गयी लेकिन ये सब बाल काले हैं।

तूणमूल की बुआ ममता और उनकेे भतीजे द्वारा तोलाबाजी टैक्स लागू किया जा रहा है। हमारे नेतागणों ने एक झटके में चुनाव आयोग की आदर्श आचार संहिता को ताक पर रख दिया है। जिसमें पार्टी और उम्मीदवारों को अन्य नेताओं के व्यक्तिगत जीवन पर टिप्पणी करने और असत्यापित आरोप लगाने पर प्रतिबंध है। किंतु नेताओं का दोगलापन किस तरह सफल होगा यदि वे जिस नैतिकता की बात करते हैं उसे अपने आचरण मे ढालने लगें।

इससे एक विचारणीय प्रश्न उठता है। आदर्श आचरण संहिता के मामलों में दोषसिद्धि की दर बहुत कम है। क्या ये मामले केवल प्रतीकात्मक हैं? क्या चुनाव आयोग को इस संबंध में तुरंत कार्यवाही नहंी करनी चाहिए? चुनाव के बाद शिकायतों पर कार्यवाही करने का कोई मतलब नहीं रह जाता है। यदि आदर्श आचार संहिता को कानूनी संरक्षण मिलता तो इस संबंध में प्रथम सूचना रिपोर्टं से उत्पन्न मामले सुदुढ नहंी होते। क्या आदर्श आचार संहित को कानूनी दर्जा नहीं दिया जाना चाहिए जैसा कि कार्मिक लोक शिकायत, विधि और न्याय संबंधी संसदीय स्थायी समिति ने 2013 में अपनी रिपोर्ट में सिफारिश की थी?

इन प्रश्नों से निर्वाचन आयोग भी जूझ रहा है। किंतु जब तक निर्वाचन आयोग कोई समाधान ढूंढता है तब तक मतदान हो चुका होगा और आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन निरर्थक बन जाएगा क्योंकि आदर्श आचार संहिता निर्वाचन आयोग और राजनीतिक दलों के बीच एक स्वैच्छिक सहमति है और जिसे कोई कानूनी दर्जा नहीं मिला हुआ है। राजनीतिक पार्टियां और उम्मीदवार इसका खुलेआम उल्लंघन करते हैं और आयोग इस संबंध में निःस्सहाय है।

एक वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार अदर्श आचार संिहता को काननूी स्वीकृति प्राप्त नहीं है। इसका उद्देश्य एक नैतिक पुलिसकर्मी की तरह कार्य करना है ताकि स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिष्चित हो सकें। हम किसी पार्टी का चुनाव चिह्न जब्त कर सकते हैं या एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में उसकी मान्यता समाप्त कर सकते हैं अर्थात कोई भी नेता और उम्मीदवार आदर्श आचार संहिता का खुलेआम उल्लंघन करते हुए लोक सभा या विधान सभा के लिए निर्वाचित हो जाता है।

दुर्भाग्यवश अपने विपक्षियों को इस संबंध में सझाव देने के लिए कहने के बजाय वे सब चुनाव की तात्कालिक आवश्यकताओं के शिकार बन जाते हैं। कोई भी इस समस्या का निराकरण नहीं करना चाहता है कि चुनाव प्रचार कडुवा और विषैला क्यों बनता जा रहा है? क्या ऐसी असंमियत भाषा, जो राजकौशल और काले जादू क बीच की लकीर को समाप्त कर देता है उसे उचित ठहराया जा सकता है?

सही या गलत को यह कहते हुए माफ कर दिया जाता है कि यह भावावेश में कहा गया या यह कहकर इसे खारिज कर दिया जाता है कि प्रेम और युद्ध मे सब कुछ जायज है किंतु इस गाली-गलौच के खेल में एक चीज स्पष्टतः सामने आती है कि यह राजनीतिक असंयम हमारी व्यवस्था की कटु सच्चाई को उजागर करती है। आज राजनीति गटर स्तर तक गिर चुकी है। हर नेता और पार्टी विरोधी पार्टी के बारे में निर्वाचन आयोग को तुरंत शिकायत करती है किंतु अपने कारनामों को ध्यान में नहीं रखती है। निर्वाचन आयोग भी चेतावनी देने या किसी नेता पर दो तीन दिन तक चुनाव प्रचार पर प्रतिबंध लगाने के सिवाय कछ नहंी कर सकता है। निर्वाचन आयोग द्वारा ऐसे घृणास्पद भाषणांे के विरुद्ध कार्यवाही केवल एक फटकार सी होती है।

हैरानी की बात यह है कि देश में चुनाव से संबंधी तीन करोड मामले लंबित हैं जिनमें आदर्श आचार संिहता के उल्लंघन के मामले भी शामिल हैं इसलिए यह मानना गलत है कि इन प्रथम सूचना रिपोर्टों में कोई कार्यवाही नहंी होती है। अनेक मामले अभी भी चल रहे हैं। निर्वाचन आयोग न्यायपालिका को यह नहीं कह सकता है कि इन मामलें का शीघ्रातिशीघ्र निपटान करे क्योंकि यह उसके क्षेत्राधिकार से बाहर है। समय आ गया है कि आदर्श आचार संहिता पर पुनर्विचार किया जाए और इसे पुननिर्धारित किया जाए। आदर्श आचार संहित को कानून बनाया जाना चाहिए और निर्वाचन आयोग को दंडात्मक कार्यवाही करने की शक्ति दी जानी चाहिए।

निर्वाचन आयोग के एक अधिकारी के अनुसार वर्तमान में हमारी शक्तियां पार्टियों द्वारा चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन तक सीमित हैं और इनका उपयोग हमेशा नहीं किया जा सकता है। चुनाव आयोग किसी पार्टी के चुनाव चिहन को हमेशा वापस नहीं ले सकता है। व्यक्तिगत उम्मीदवार जो आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन कता है आयोग उस पर जुर्माना लगाने, उसे अयोग्य घोषित करने और कुछ मामलों में चुनाव को रद्द करने के बारे में सोच सकता है। हमारे नेतागणों के अभद्र व्यवहार का प्रचार प्रसार किया जाना चाहिए और सरकार तथा पार्टियों द्वारा अपने ऐसे उम्मीदवारों की निंदा की जानी चाहिए। किंतु सबसे पहले हमें निर्वाचन आयोग को अधिक शक्तियां देनी चाहिए। हालांकि आदर्श आचार संहिता कभी भी एक कानून का रूप नहंी लेगी क्योंकि इससे अनेक राजनीतिक हित जडे हुए हैं। राजनीति में नैतिकता के स्तर में गिरावट के बारे में पश्चाताप करना मूर्खता है।

कुल मिलाकर हमारी व्यवस्था सरकार, पार्टियां और राजनेता गरिमा और शिष्टाचार की परवाह नहीं करते है। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि चुनाव कौन जीतता है क्योंकि अंततः जनता हारती है। इसके लिए किसे दोष दें? इसके लिए हमारे नेता और पार्टियां दोषी हैं जिन्होंने असंयमित भाषा में महारथ हासिल कर दी है। हमारे नेता अनैतिक, खतरनाक और वोट बैंक की राजनीति में सलिप्त रहते हैं और वे जनता में मतभेद पैदा करते हैं। आज के गाली-गलौच वाले चुनाव प्रचार के माहौल में लोकतंत्र का मूल विचार ही प्रभावित हो रहा है।

समय आ गया है कि हमारे नेता अपने विभाजनकारी और व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोपों को सीमित करंे और विरोधी उम्मीदवारों के साथ मुददों के आधार पर बात करें। ये मुद्दे जनता और देश से संबंधित होने चाहिए न कि व्यक्तित्व के आधार पर। चुनाव प्रचार को वापस पटरी पर लाया जाए और इसमें गरिमापूर्ण बहस हो और असंयमित भाषा को न सहा जाए। हमारा उद्देश्य सार्वजनिक संवाद और चर्चा के स्तर को उठाना होना चाहिए। भारत ऐसे नेताओं के बिना भी आगे बढ सकता है जो राजनीति को विकृत करते हैं और इसके साथ ही लोकतंत्र को भी विकृत करते हैं। हमें निर्लज्ज और स्वार्थी नेताओं को वोट देना बंद कर देना चाहिए क्योंकि ये नेता अनैतिकता को महत्व देते हैं। क्या कोई राष्ट्र नैतिकता की भावना के बिना आगे बढ सकता है? यदि हां तो कब तक? हमें इस प्रश्न पर विचार करना होगा।

 
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