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Editorial

शासन का सबसे उत्पीडित अंग - डॉ0 एस. सरस्वती

December 24, 2020 05:54 PM
Jagmarg News Bureau

उच्चतम न्यायालय ने 17 दिसंबर 2020 को किसानों के आंदोलन से जुडे मामले में टिप्पणी की कि किसानों को शांतिपूर्वक विरोध प्रदर्शन करने का संवैधानिक अधिकार है किंतू हिंसा करने और सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने का कोई अधिकार नहीं है। उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयोे नें अनेक बार विरोध प्रदर्शनों को लेकर अपने इस रूख को दोहराया है और कहा है कि इससे आम नागरिकों को परेशानी होती है। न्यायालयों और न्यायधीशों को ऐसे तत्वों से भी जूझना पडता है जो उनके निर्णयों की अवमानना करते हैं और फिर उन्हें पुनः ऐसे ही मामलों को सुनने के लिए बाध्य होना पडता है।

भारत के मुख्य न्यायधीश न्यायमूर्ति शरत ए बोबडे की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने अपने निर्णय में स्पष्ट किया कि उच्चतम न्यायालय इस आंदोलन में हस्तक्षेप नहंी करेगा। यह मूल अधिकारों का अंग है और ऐसे अधिकारों के प्रयोग में कोइ बाधा तब तक पैदा नहीं की जानी चाहिए जब तक वह अहिंसक है और जब तक उससे अन्य नागरिकों के जीवन और संपत्ति को नुकसान नहीं पहुंचता है। हर विवेकशील व्यक्ति इस बात से सहमत होगा कि धरने पर बैठे किसानों द्वारा कई हफ्तों से सडक बाधित करने से आम अदमी के जीवन और आजीविका को नुकसान पहुंच रहा है। परिस्थितियों के दबाव में खंडपीठ ने किसानों के विरोध प्रदर्शन के अधिकार पर भी समान बल दिया है और साथ ही इस बात पर भी बल दिया है कि बिना दूसरे के सामान्य कामकाजों में हस्तक्षेप किए बिना इसे शांतिपूर्वक चलाया जाए।

न्यायालय ने केन्द्र सरकार से कहा है कि वह कृषि कानूनों के क्रियान्वयन को स्थगित करने पर विचार करे ताकि इन कानूनों का विरोध कर रहे किसान संगठनों के साथ वार्ता की जा सके। खंडपीठ ने किसान संगठनों से भी कहा है कि इस समस्या के समाधान के लिए वार्ता आवश्यक है किंतु अब तक इस समस्या का कोई भी समाधान सामने नहीं आया है। उच्चतम न्यायालय द्वारर एक नई समिति के गठन के सुझाव को किसानों ने अस्वीकार कर दिया है और वे तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग पर बल दे रहे हैं। यह उच्चतम न्यायालय की शक्ति के लिए एक बडी चनौती है।

इस वर्ष फरवरी में केरल उच्च न्यायालय ने राज्य में शैक्षिक परिसरों में हडताल और विरोध प्रदर्शन पर प्रतिबंध लगाया था। न्यायालय ने 25 संस्थानों द्वारा हडताल और विरोध प्रदर्शन के कारण कार्य दिवसों की हानि के कारण दायर याचिकाओं की जांच के बाद यह निर्णय दिया था। न्यायालय ने यह स्पष्ट किया था कि अध्ययन करना छात्रों का अधिकार है इसलिए अन्य छात्र विरोध प्रदर्शन कर उन्हें बलपूर्वक इससे वंचित नहंी कर सकते हैं। न्यायालय ने कहा कि प्राधिकारी पुलिस की सहायता ले सकते हैं और इन निर्देशों का उल्ल्ंघन करने वालों के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही भी कर सकते हैं। इस तरह न्यायालय ने इस मत को नकार दिया कि पुलिस बल शैक्षिक संस्थानों के परिसरों में प्रवेश नहीं कर सकता है जैसा कि कृषि कानूनों के मामले में दिखायी दे रहा है।

अडियलवादियों के अलावा उच्चतम न्यायालय को उच्च न्यायालयों  सहित अन्य स्रोतों से भी समस्याओं का सामना करना पडता है। कुछ दिन पूर्व अनेक बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं की सुनवाई करते समय न्यायालय को आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के एक आदेश पर रोक लगानी पडी जिसने इस बात की न्यायिक जांच के आदेश दिए थे कि क्या राज्य में संवैधानिक तंत्र विफल हो गया है और जिसके परिणामस्वरूप राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाया जाए। राज्य सरकार का तर्क था कि उच्च न्यायालय के आदेश कार्यपालिका की संवैधानिक शक्तियों का गंभीर अतिक्रमण है और यह शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धान्त का उल्लंघन है। राज्य सरकार और उच्च न्यायालय के बीच चल रही यह रस्साकस्सी उच्चतम न्यायालय तक पहुंची।

भारत में उच्चतम न्यायालय को मूल अपीलीय और परामर्शी क्षेत्राधिकार प्राप्त है। न्यायालय को व्यापक मूल क्षेत्राधिकार प्राप्त है जो भारत सरकार और एक या एक से अधिक राज्यों के बीच विवाद या भारत सरकार और किसी राज्य के बीच विवाद और भारत सरकार और किसी राज्य तथा एक या अन्य राज्यों के बीच विवाद, दो या अधिक राज्यों के बीच विवाद तक विस्तारित है। उच्चतम न्यायालय का अपीलीय क्षेत्राधिकार भी व्यापक है। यह भारत में सिविल, दांडिक और किसी अन्य प्रक्रिया में किसी भी उच्च न्यायालय की डिक्री या अंतिम आदेश पर लागू होता है और यह तब संभव है जब उच्च न्यायालय यह प्रमाण पत्र देता है कि किसी मामले में संविधान की व्याख्या से जुडा हआ कानूनी प्रश्न समाहित है। यदि उच्च न्यायालय ऐसा प्रमाण पत्र  नहीं भी देता है तो भी उच्चतम न्यायालय अपने विवेक से संविधान के अनुच्छेद 136 के अंतर्गत किसी भी निर्णय, डिक्री या आदेश के संबंध में अपील की अनुमति दे सकता है।

इसके अलावा उच्चतम न्यायालय को राष्ट्रपति द्वारा संविधान के अनुच्छेद 143 के अंतर्गत सौंपे गए मामलों में परामर्शी क्षेत्राधिकार भी प्राप्त है। आयकर अधिनियम, सीमा शुल्क अधिनियम, स्वर्ण नियंत्रण अधिनियम, न्यायालय की अवमानना अधिनियम लोक प्रतिनिधित्व अधिनिमय और अनेक अन्य ऐसे कानूनों के मामले मंे भी उच्चतम न्यायालय को परामर्शी क्षेत्राधिकार प्राप्त है। न्यायालय स्वतः भी अनेक मामलों को ले सकता है। उच्चतम न्यायालय अपने निर्णयों और आदेशों की भी समीक्षा कर सकता है और इस प्र्रावधान का उपयोग हाल के समय में पर्याप्त रूप से किया गया है।

संसद कानून बनाकर संघ सूची के किसी भी विषय के मामले में उच्चतम न्यायालय का क्षेत्राधिकार बढा सकती है। उच्चतम न्यायालय पर लंबित मामलों का भारी बोझ है और उनमें से अनेक मामले इतने अत्यावश्यक होेते हैं कि रात्रि में भी न्यायालय को खोलना पडता है। न्यायमूर्ति नरीमन ने एक बार कहा था कि हम पर अत्यधिक बोझ है। कृपया अवकाश खंडपीठ के पाए जाएं। सरकार, राजनीतिक दल और राजनीतिक कार्यकर्ता राजनीतिक समस्याओं के समाधान के लिए कानूनी रास्ता अपनाने लगे हैं।

केन्द्र और राज्यों में विपक्षी राजनीतिक दलों में एक अवांछित प्रवृति बढ रही है कि वह सरकार के प्रत्येक निर्णय को न्यायालय में चुनौती देते हैं। यह निर्णयों के कार्यान्यवन में विलंब करने या उनको रोकने का एक तरीका हैं और सरकार के निर्णयों के विरुद्ध प्रतिकूल प्रचार-प्रसार करने का साधन है। इस प्रवृति के कारण विधायी निकाय पृष्ठभूमि में चले गए हैं और सडकंे तथा सार्वजनिक स्थान इन मुद्दों पर विचार व्यक्त करने के स्थान बन गए हैं जिसके चलते ऐसे मामलों में पुलिस और न्यायपालिका का स्वतः हस्तक्षेप हो जाता है और न्यायालयों में इनसे जुडे अधिकाधिक केस दायर किए जाते हैं तथा पुलिस के साथ आंदोलनकारियों की झडप आम बात हो गयी है।

भारत में भी बदलाव का दौर चल रहा है और शायद यह वामपंथी सोच के पतन और दक्षिणपंथी सोच के उदय के बारे में हताशा की अभिव्यक्ति है। इस राजनीतिक घटनाक्रम में शासन के एक स्वतंत्र और निष्पक्ष अंग के रूप मे न्यायपालिका की भूमिका महत्वपूर्ण बन गयी है। न्यायपालिका पर दबाव बढ रहा है कि वह अपनी स्वतंत्रता और न्यायिक संयम के सिद्धान्त की रक्षा करे। इस वर्ष के आरंभ में दिल्ली दंगों के संबंध में घृणा भरे भाषणों के मामले में सुनवाई करते हुए उच्चतम न्यायालय ने स्पष्टतः स्वीकार किया था कि उस पर परिस्थितियों का दबाव पड रहा है और वह दबावों को नहीं झेल सकता है। भारत के मुख्य न्यायाधीश ने कथित रूप से कहा था ‘‘हम नहीं कह रहे हैं कि लोग मरें किंत हम ऐसी चीजों को रोक नहीं सकते हैं। हम निवारणात्मक राहत नहीं दे सकते हैं। हम महसूस कर रहे हैं कि हम पर दबाव है। हम किसी स्थिति का संज्ञान तभी ले सकते हैं जब वह घट जाए। हम पर ऐसा दबाव डाला जा रहा है कि मानो इस स्थिति के लिए न्यायालय दोषी है। न्यायालय इस परिदृश्य में तब आता है जब ऐसा हो जाता है और न्यायालय ऐसी चीजों को रोकने में सक्षम नहंी है।’’

क्या हम न्यायधीशों के बारे में एक निष्पक्ष व्यक्ति की लोगों की अवधारणा को बदलने की अनुमति दे सकते हैं? ऐसा व्यक्ति जो कानून और न्याय को बनाए रखने के लिए कार्य करता है और क्या हम उसकी इस छवि को दबाव में जी रहे व्यक्ति के रूप में बदलने दे सकते हैं? एक समय था जब न्यायधीशों का और न्यायपालिका का सम्मान किया जाता था और न्यायपालिका की आलोचना नहंी की जाती थी। आज न केवल निर्णयों अपितु न्यायधीशों की भी आलोचना की जाती है और उन्हें धमकी तक दी जाती है। हम मानते हैं न्यायपालिका इस दबाव का सामना करने में सक्षम है। न्यायपालिका के पास वित्तीय या कार्यकारी शक्ति नहंी है अतः इसे अपनी स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए दबाव मुक्त रहना होगा।

 
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