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Chandigarh

मदर्स डे पर विशेष - मां तुझे सलाम चुनौतियों से लिया लोहा, मंजिल तक पहुंचाया बच्चों को

May 08, 2022 08:08 AM

चंडीगढ़ (मयंक मिश्रा) - मां ईश्वर द्वारा बनाई गई ऐसी कृति है जो निस्वार्थ भाव से अपने बच्चों पर प्यार लुटाती है। एक मां के लिए बच्चे ही उसकी दुनिया होते हैं।  बच्चों को काबिल बनाना और उन्हें मंजिल तक पहुंचाने में बेशक हर मां का योगदान खास होता है। कहते हैं कि जिंदगी आपके हौसलों को आजमाती है। आखिरी लम्हों तक राहों से भटकाती है। लेकिन जिनके पास भरोसे और आशीर्वाद का संबल होता है तो हर बार वह उठ खड़े होते हैं।

तीन अलग-अलग किरदार और उनकी अपनी-अपनी संघर्ष की कहानियां। मदर्स डे के मौके पर चुनौतियों से लोहा लेती और अपने दम पर जिंदगी जीने का साहस रखने वाली तीन मांओं की कहानियां पढ़कर किसी की आंखें भी नम हो जाएंगी। मदर्स डे के मौके पर 10 मई को आयोजित होने वाले पर दसवें मां सम्मान समारोह में पंजाब के राज्यपाल बनवारी लाल पुरोहित द्वारा इन माओं को सम्मानित करेंगे। समारोह का आयोजन डॉ.जीसी मिश्रा मेमोरियल एंड चैरीटेबल ट्रस्ट और मानव मंगल स्मार्ट स्कूल की ओर से किया जाएगा।

घर पर छोटी सी दुकान खोलकर बेटे को बनाया वैज्ञानिक

चंडीगढ़ के सेक्टर-30 स्थित केंद्रीय वैज्ञानिक उपकरण संगठन (सीएसआईओ) के वैज्ञानिक सत्य प्रताप सिंह आज जो कुछ भी हैं इसका श्रेय वह अपनी मां को देते हैं। उन दिनों को याद कर कई बार सिंह की आंखें भर आती हैं। मूल रूप से उत्तर प्रदेश के जिला गाजीपुर के गांव खातिरपुर निवासी सत्य प्रताप सिंह की मां हेमवंती देवी के जीवन का संघर्ष उसी दिन शुरू हो गया था जब वह शादी के बाद अपने ससुराल आई थीं। शादी के कुछ कुछ सालों बाद उनके पति रामनारायण सिंह का निधन हो गया। सत्य प्रताप सिंह बचपन से ही दिव्यांग हैं और जब उनके पिता का निधन हुआ उस समय वह छोटा थे।

मां के सामने सबड़ी बड़ी जो समस्या खड़ी हुई वह थी बेटे की पढ़ाई। उन्हें विश्वास था कि अगर उसे पढ़ने का अवसर मिलेगा तो वह एक दिन बहुत बड़े मुकाम पर पहुंचेगा। बेटे को आगे बढ़ाने के लिए हेमवंती देवी ने घर में ही छोटी सी दुकान खोल ली। उस दुकान से जैसे तैसे उतनी कमाई होने लगी कि पैसे की कमी के कारण सत्य प्रताप की पढ़ाई रुकने की नौबत नहीं आई। सत्य प्रताप ने भी अपने मां के विश्वास को डगमगाने नहीं दिया। बीएससी करने के बाद उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से फिजिक्स में एमएससी की। उनके बाद आईआईटी खड़गपुर से एमटेक की और वहीं से पीएचडी की। पिछले साल दिसंबर में उन्हें भारत सरकार के प्रतिष्ठित संस्थान केंद्रीय वैज्ञानिक उपकरण संगठन, चंडीगढ़ में वैज्ञानिक पद नौकरी मिली।

पति के साथ की मजदूरी, बेटे को बनाया डॉक्टर

पीजीआई, चंडीगढ़ के सर्जरी विभाग में असिसटेंट प्रोफेसर डॉ.कैलाश कुरडिया भी अपनी सफलता का श्रेय अपनी मां मूली देवी को देते हैं। जयपुर के एक गांव बालेसर की मूली देवी ने अपने तीन बेटों और तीन बेटियों को पढ़ा-लिखाकर काबिल बनाया। उनके पति गांव में ही श्रमिक थे और आठ लोगों के परिवार का पालन पोषण करने के लिए वह दिन में 14 घंटे काम करते थे। मूली देवी भी पति का साथ देती थीं ताकि उनके बच्चों को वह दिन न देखने पड़ें जो कि उन्होंने देखे हैं। मूली देवी खुद अशिक्षित हैं। खुद के पास जमीन भी इतनी नहीं थी कि वह अपने बच्चों को अच्छे से पढ़ा लिखा पातीं, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी।  बच्चों से खेत में काम कराने के बजाय उन्हें स्कूल भेजा। देर रात तक सभी को पढ़ने के लिए वह खुद प्रेरित करती रहतीं। उनके इस संघर्ष का ही परिणाम रहा कि उनका एक बेटा डॉक्टर बन गया और जबकि उनका एक अन्य बेटा बैंक में आफिसर है व तीसरा बेटा गांव में ई मित्रा सेंटर चलाता है। बेटों के साथ साथ उन्होंने तीनों बेटियों को भी शिक्षित किया।

मां बनी सहारा तो बेटी ने यूनिवर्सिटी में हासिल किया दूसरा स्थान

पंजाब यूनिवर्सिटी से कैमिस्ट्री में एमएससी करने के बाद विपरीत परिस्थितियो में बीएड में दूसरा स्थान हासिल करने वाली चंडीगढ़ निवासी पैंसी मल्होत्रा मां को अपना रोल मॉडल मानती हैं।  उनकी मां निर्मल मल्होत्रा ने अपने जीवन में बहुत उतार चढ़ाव देखे हैं। जीवन में सब कुछ ठीक चल रहा था कि अचानक पति का देहांत हो गया। उस समय बच्चे छोटे थे। पति के चले जाने के बाद उन्हें उनके स्थान पर बैंक में नौकरी मिल गई। वह चाहती थीं कि छोटी बेटी पैंसी उच्च शिक्षा हासिल कर अपने पैरों पर खड़ी हो। उसने पंजाब यूनिवर्सिटी से कैमिस्ट्री में एमएससी आनर्स की।

एमएससी करने के बाद साल 2016 में एक सड़क हादसे में उसे स्पाइन इंजरी और मल्टीपल इंजरी के कारण कई फ्रेक्चर आ गए थे। लंबे समय तक अस्पताल में इलाज चला और करीब 2 साल वह बेड पर रही। इस दौरान निर्मल मल्होत्रा बेटी का सहारा बनीं। बेटी न ज्यादा देर तक बैठ पाती थी न ही खड़ी हो पाती थी। बेटी डिप्रेशन का शिकार न हो इसलिए निर्मल ने उसे हमेशा प्रोत्साहित किया। दो साल बेड पर रहने के बाद जब वह चलने योग्य हुई तो निर्मल ने उसे दोबारा से पढ़ाई करने के लिए प्रेरित किया और उसका एडमिशन चंडीगढ़ के गवर्नमेंट कॉलेज आफ एजुकेशन में बीएड में करवाया। निर्मल के संघर्ष का नतीजा यह रहा कि बीएड में बेटी ने 85% स्कोर के साथ यूनिवर्सिटी में दूसरी पोजिशन हासिल की।

 
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